भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति Origin of Indian Classical Music सबसे पुराने हिंदू शास्त्र सामवेद से मानी जाती है। इसमें सा, रे, गा, मा, पा, धा, नी और सा के आठ बुनियादी सुरों के साथ सबसे जटिल और पूर्ण संगीत प्रणाली है। इसकी प्रकृति मोनोफोनिक (एक लय में गाया जाने वाला) है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में इस्तेमाल किए जाने वाले यंत्रों में वीणा, मृदंगम, तबला, कंजिर, तंबू, बांसुरी, सितार, वायलिन, गौतविदम और सारंगी शामिल हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो मुख्य शैली हिंदुस्तानी संगीत (उत्तर भारत) और कर्नाटक संगीत (दक्षिण भारत) हैं।भगवान कृष्ण और प्रकृति का सौंदर्य हिन्दुस्तानी संगीत के मुख्य विषय हैं। हिंदुस्तानी संगीत के कुछ उल्लेखनीय अधिवक्ताओं में अलाउद्दीन खान, विलायत खान, बिस्मिल्लाह खान, भीमसेन जोशी और कई अन्य हैं।
कर्नाटक संगीत एक प्राचीन संगीत है जो दक्षिणी भारत में उत्पन्न हुआ था इसको मूल दैवीय माना जाता है। इसके कुछ प्रमुख संगीतकार मैसूर सदाशिव राव, तियाराजा, मुथुस्वामी दीक्षिततार और अन्य हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के विभिन्न रूप हैं
- ख्याल
- गजल
- ठुमरी
- ध्रुपद
- धामर
- तराना
- त्रिवत
- चैती
- कजरी
- टप्पा
- टपखायल
- अष्टापणी
- भजन।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रणालियां या शैलियां हैं। उत्तर भारतीय जिसे हिंदुस्तानी संगीत कहा जाता है और दक्षिण भारतीय जो कर्नाटक संगीत के नाम से विख्यात है। जिस तरह हमारे देश का राजनीतिक, साहित्यिक और सामाजिक इतिहास कुहासे में ढंका है, उसी तरह संगीत का इतिहास भी बहुत कुछ अनुमानों पर आधारित है।
इस इतिहास के बारे में दो मान्यताएं प्रचलित हैं। सर्वाधिक प्रचलित धारणा यह है कि भारतीय संगीत की विराट नदी शताब्दियों तक अपनी मंथर गति से बहती रही और मध्यकाल में मुसलमानों के भारत आगमन के बाद यह दो धाराओं में विभक्त हो गई।
दक्षिण की धारा ने बहुत कुछ अपने मूल स्वरूप को बचाए रखा लेकिन उत्तर की धारा में मुसलमानों के साथ आया अरबी, ईरानी और मध्य एशिया का संगीत घुलता-मिलता गया जिसके कारण ध्रुपद के स्थान पर ख़याल, ठुमरी, टप्पा, तराना आदि सांगीतिक रूपों का उद्भव हुआ और अंततः उनका वर्चस्व स्थापित हो गया।
दूसरी मान्यता यह है कि ये दो धाराएं नहीं बल्कि दो स्वतंत्र नदियां हैं जिनका स्रोत तो एक ही है लेकिन मार्ग लगभग शुरू से ही अलग-अलग रहा है। दोनों में ही विभिन्न कालखंडों में एक-दूसरे का और अन्य सांगीतिक परंपराओं का समावेश होता रहा है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
पहली मान्यता का एक परिणाम यह निकला कि दक्षिण भारतीय संगीत को ‘शुद्ध’ और ‘पूर्णतः भारतीय’ और उत्तर भारतीय संगीत को ‘मुसलमानों द्वारा दूषित’ माना जाने लगा। बीसवीं शताब्दी के संगीत का परिदृश्य दो महान विभूतियों, विष्णु नारायण भातखंडे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर और उनके कार्यों से सबसे अधिक प्रभावित हुआ।
इनके बीच अनेक बिंदुओं पर मत-वैभिन्य था और जैसा कि पलुस्कर के विख्यात शिष्य बी. आर. देवधर ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट रूप से दर्शाया है, इनके निजी संबंध भी मधुर नहीं थे। लेकिन इस बिंदु पर दोनों में मतैक्य था। भातखंडे का बेहद जोर संगीत-संबंधी प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के आधार पर समकालीन सांगीतिक प्रदर्शनों और व्यवहारों का मूल्यांकन करने और उनके बीच तारतम्य स्थापित करने पर था।
किसी ग्रंथ का संस्कृत में होना ही उसकी प्रामाणिकता थी। अपनी सांगीतिक मान्यताओं को प्राचीनता और प्रामाणिकता का दर्जा दिलाने के लिए भातखंडे ने स्वयं कुछ पुस्तकें चतुर पंडित नाम से संस्कृत में लिखीं। भातखंडे ने रागों के स्वरूप-निर्धारण और ठोस सैद्धांतिक आधार पर उनका वर्गीकरण करने और पलुस्कर ने संगीत की शिक्षण पद्धति विकसित करने, संगीत को समाज में सम्मान दिलाने और शिक्षित मध्यवर्ग में उसका प्रचार करने का ऐतिहासिक कार्य किया। उनके अवदान को हमेशा याद रखा जाएगा। लेकिन उनके कार्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन भी जरूरी है और अभी तक इसकी ठीक से शुरुआत भी नहीं हो पाई है।
कर्नाटक संगीत के प्रख्यात किंतु किंचित विवादास्पद युवा गायक टी.एम. कृष्ण ने 2013 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ए सदर्न म्यूजिक: द कर्नाटिक स्टोरी (एक दक्षिणात्य संगीत: कर्नाटिक कथा) में स्पष्ट रूप से दूसरी मान्यता का समर्थन किया है और लिखा है, हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत जुड़वां भाई न होकर बहुत दूर के रिश्ते के भाई हैं। “दोनों का इतिहास एक-दूसरे के साथ गुंथा हुआ है और दोनों अपनी जड़ें भरत के ‘नाट्यशास्त्र’, मतंग के ‘बृहद्देशी’ और शार्ङ्गदेव के ‘संगीत रत्नाकर’ जैसे संस्कृत ग्रंथों में ढूंढ़ते हैं।”
दक्षिण में तमिल भाषा में भी ‘सिलप्पादिगरम’ और ‘पंच मरबू’ जैसे ग्रंथों की रचना हुई जिनसे दूसरी शताब्दी एवं परवर्ती काल में इस क्षेत्र में किस प्रकार का संगीत प्रचलित था और उसे किस तरह से गाया-बजाया जाता था, इसके बारे में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। टी.एम. कृष्ण का कहना है कि हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत में अनेक समान शब्द और विचार भले ही प्रचलित हों, लेकिन दोनों परंपराओं और प्रणालियों में उनका अर्थ नितांत भिन्न है।
बहुत संभव है कि आज से एक हजार साल पहले किसी पारिभाषिक शब्द का अर्थ उसके आज के अर्थ से बिलकुल ही भिन्न बल्कि विपरीत हो। दोनों प्रणालियों में स्वरों की स्थापना भी अलग-अलग स्थान पर की जाती है। श्रुतियों का इस्तेमाल भी अलग-अलग तरीके से किया जाता है। ताल को बरतने के बारे में भी अलग-अलग दृष्टियां हैं।
कर्नाटक संगीत में कोई भी राग कभी भी गाया-बजाया जा सकता है लेकिन हिंदुस्तानी संगीत में रागों के गाने-बजाने के समय निर्धारित हैं। पूरे दिन को तीन-तीन घंटों के आठ प्रहर में बांट कर तय कर दिया गया है कि कौन-सा राग कब गाया-बजाया जाएगा और इसका सांगीतिक तर्क भी है।
मसलन, सुबह के सात से दस बजे के बीच के रागों में कोमल यानी शुद्ध मध्यम का प्रयोग किया जाता है लेकिन शाम के सात से रात के दस बजे के बीच के रागों में तीव्र मध्यम लगता है। पर अब इस समय सिद्धांत पर भी सवाल उठने लगे हैं। आज के अनेक शीर्षस्थ संगीतकारों की भी इस पर राय है कि अब सिद्धांत छोड़ने का समय आ गया है। हालांकि वे स्वयं उसी का पालन कर रहे हैं और करते रहेंगे। प्रसिद्ध संगीतशास्त्री दीपक एस. राजा ने इस विषय पर गहराई से शोध और चिंतन किया है और वे भी इसी राय के हैं। लेकिन इस विषय पर फिर कभी।
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